चौपाटी के बहुत पास, एक हरा-भरा बगीचा है,
जहाँ हमने एक साथ कुछ वक्त गुज़ारा था,
उस शाम किसी बात पर नोक-झोंक भी हुई थी,
अक्सर किसी न किसी बात पर,
हम अड़ जाते थे बात करते-करते,
और बात भी बहस में बदल जाया करती थी,
इस बहस में हमारा रिश्ता भी,
बिखर जाया करता था वैसे ही,
जैसे कांच गिरकर बिखरता है फर्श पर,
कई बार बिखरा है,
लेकिन बिखरने के लिए साबुत भी होना पड़ता है,
अब तक सोचता हूँ,
कि इतनी बार बिखरकर सब कुछ साबुत कैसे है?
Bahut Hi sundar abhivyakti..
Anuj
Ram