नज़्मालय के बारे में

नज़्मालय, इस नाम का मतलब मेरे लिए नज़्मों का घर है. हालाँकि ये नाम अपने आप में ही व्याकरण के नियम का उल्लंघन हैं. इस वजह से एक साथी ने इस नाम को बदलने की भी सलाह दी. लेकिन मन नहीं माना. मुझे लगा कि आज के दौर में जब फ्यूज़न को सहजता से स्वीकार किया जा रहा है तब दो भाषाओं के इस मेल को भी आज नहीं तो कल स्वीकार कर ही लिया जाएगा. समय के साथ-साथ कुछ शब्दों के बहुवचन में बहुत अंतर आ गया है, जैसे हिन्दी में आम बोलचाल के दौरान स्कूल का बहुवचन स्कूलों और ऑफ़िस का ऑफ़िसों हो गया है. वैसे ही मैं भी उम्मीद करता हूँ कि जिस तरह बोलचाल और लेखन में उस तरह के बहुवचनों को जगह मिली है उसी तरह भाषाविद भविष्य में दो भाषाओं के शब्दों के मेल से बने नए शब्दों को उचित स्थान देने लगेंगे.

नज़्मालय में अधिकतर नज़्म बंदिशों में नहीं हैं. लेकिन इन्हें पढ़ने का एक सलीक़ा है. ये सबका अपना-अपना हो सकता है. आपको इसलिए बता रहा हूँ कि कहीं कोई नज़्म आपके अन्दर ख़ुद को पढ़ने की ख़्वाहिश जगाये तो वो मायूस होकर न लौटे. नज़्म पढ़ने का सलीक़ा मेरे लिए चाय पीने जैसा है. चाय पीना मेरे लिए कोई काम नहीं है. ये वो वक़्त होता है जब अकेलेपन में भी कुछ मिठास होती है और मुझे सुकून मिलता है. ख़ुद से थोड़ी बातें भी हो जाती हैं. इसलिए चाय मैं बेहद इत्मीनान से पीता हूँ. एक-एक चुस्की का स्वाद लेता हूँ. चाय पकी या नहीं, चायपत्ती का स्वाद कितना आ रहा है, शक्कर ज़्यादा तो नहीं पड़ गई, इस सबका अंदाज़ा कभी एक तो कभी एक के बाद एक चुस्की से लगता है. नज़्म पढ़ते वक़्त भी एक-एक लफ़्ज़ और उनसे बनी लाइन का पूरा ज़ायक़ा लेना बेहद ज़रूरी है. एक बार में नज़्म की उतनी ही चुस्की लेना चाहिए जिससे कि जीभ न जले. एक पूरी लाइन पढ़ने के बाद अगली लाइन पढ़ने के बीच में उतना ही अंतराल हो जितना कि दो चुस्कियों के बीच. और पूरी एक नज़्म पढ़ने के बाद अगली पर तब तक मत जाईए जब तक कि उस पढ़ी हुई नज़्म का स्वाद होठों पर रखा हो. करके देखिए, अच्छा लगे तो औरों को भी बताइए. ये तो हुई नज़्म पढ़ने वाली बात.

अब आता हूँ लिखने वाली बात पर. क्या हैं, कैसी हैं ये आप कमेंट्स में बता सकते हैं. लेकिन क्यों हैं, ये मैं बता देता हूँ. ये सब वो ख़याली बातचीत हैं जो थोड़ी नमी, थोड़ी गर्मी पाकर दिमाग़ में उग आती हैं. फ़र्क़ बस इतना है कि जो ख़याल मालगाड़ी की तरह लम्बे-लम्बे आते हैं उन्हें छाँटकर मैंने पैसेंजर ट्रेन की तरह कर दिया है. जो और छोटे हो गए उन्हें केमेस्ट्री के शब्दकोष की मदद से टेट्रा, ट्राय और डाय के दायरे में ला दिया. ये नज़्में भी अपने आप में पूरी ही हैं. लेकिन कब, कौन सी, किससे मिलकर रिएक्ट कर जाए कह नहीं सकता. फिलहाल तो पिछले कई सालों से ये नज़्मालय में बिना खटपट किये रह रही हैं.

नज़्मालय एक किताब का रूप लेने से पहले सिर्फ़ एक ब्लॉग हुआ करती थी. क़रीब दस साल पहले मेरे मरहूम दोस्त विकास परिहार ने मुझे ब्लॉग लिखने के लिए प्रेरित किया. धीरे-धीरे लिखने में रूचि बढ़ गयी. बाद में थोड़ा सिलेक्टिव हो गया. तब कुछ नज़्मों को ब्लॉग पर पोस्ट करता और कुछ को ड्राफ्ट में सेव कर लेता. नज़्मालय ब्लॉग और किताब में बस यही फ़र्क़ है कि आपको बहुत सी नज़्म सिर्फ़ किताब में ही दिखाई देंगी. इसलिए मेरी आपसे गुज़ारिश है कि नज़्मालय किताब के प्रकाशित होते ही उसे भी पढ़िए.

आपकी प्रतिक्रिया के इंतज़ार में

चक्रेशहार सिंह सूर्या