आन्दोलन और मेरा नाता शायद स्कूल का है. जब मैं १२वीं कक्षा में था. तब फेयरवेल पार्टी के आयोजन को लेकर मैं छात्रों की बात सम्बंधित शिक्षक के सामने रख रहा था. वे किसी बात पर सहमत नहीं हो रहे थे और झुंझलाकर उन्होंने मुझे नेता कहकर स्कूल के ही एक बिगड़े लड़के से मेरी तुलना कर दी. ये हिदायत भी दी कि अगर मैं पढ़ाई-लिखाई छोड़कर ऐसे पेश आया तो मेरे हाल उस लड़के के जैसे ही होंगे. मैंने इस बात का विरोध किया और आँखों में आँसू लिए उसी वक़्त स्कूल से बाहर आ गया और चौराहे पर एक पुलिया के ऊपर आकर बैठ गया. थोड़ी देर में मेरी कक्षा और अन्य कक्षा के बाक़ी छात्र भी स्कूल से बाहर आकर मेरे आजू-बाजू खड़े हो गए. उन सबको देखकर मैं चुप हो गया. स्कूल के सचिव ने मुझे सूचना भिजवाकर अपने पास बुलाया. मैंने अपनी समस्या यह रख दी कि मुझे नेता कहा गया. उन्होंने कहा कि इसमें ग़लत क्या है? महात्मा गांधी नेता थे, शहीद भगत सिंह ने भी एक तरह से नेतृत्व ही किया था. हम तुम्हें नेता कहते हैं. क्या तुम अब भी नाराज़ हो जाओगे? मैंने उत्तर में कहा कि अगर आपने मेरी तुलना किसी अन्य बिगड़े छात्र से की तो बेशक़ नाराज़ हो जाऊँगा जैसा कि मेरे शिक्षक ने किया. तब सचिव महोदय ने मेरी नाराजगी को जायज़ ठहराया और कहा कि इसके लिए शिक्षक को अपनी ग़लती माननी चाहिए. बाद में यही हुआ. खैर, ये बात २००३-०४ की थी. लगभग दो वर्ष बाद डॉ. राकेश रंजन के ज़रिये मैं आरटीआई(सूचना अधिकार अधिनियम २००५) से रूबरू हुआ. घूँस को घूँसा नामक अभियान को जबलपुर में सक्रिय करने के बाद आरटीआई से जुड़े एक आन्दोलन के लिए दिल्ली जाना हुआ. जहाँ आरटीआई से जुड़ी कुछ माँगों के लिए श्री संदीप पाण्डेय जी जन्तर-मंतर के सपीम अनशन पर बैठे थे. यह अपनी नैतिक माँगों के लिए एक तरह का आन्दोलन ही था जिसमें अरुणा रॉय, अरविन्द केजरीवाल, फैज़ल खान और देश की तमाम संस्थाओं के कार्यकर्ता वहां मौजूद थे. पहली बार मैंने इतनी बड़ी तादाद में लोगों को किसी सामाजिक मुद्दे के लिए एकजुट देखा था. मेरा काम वहाँ सूफ़ी कलाम या देशभक्ति गीत गाकर लोगों का ध्यान आकर्षित करना था ताकि भीड़ जब एकत्रित हो जाए तो लोगों तक उस आन्दोलन से जुड़ी बात पहुँचायी जा सके. शाम को प्रेस नोट लिखने के लिए हम लोग स्वामी अग्निवेश के कार्यालय में भंवर मेघवंशी, सौम्या, निखिल और तमाम लोगों के साथ इकट्ठा हुआ करते थे. वहां की व्यवस्था और अनुशासन को देखकर मैं हतप्रभ था. मीडिया के जो लोग वहां कवरेज करने आते थे वे भीड़ की जगह मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित करते थे. हमारे द्वारा भेजे गए प्रेस नोट में भी मुद्दा ही सर्वोपरि होता था न कि कोई व्यक्ति या मौजूद भीड़. अखबारों और न्यूज़ चैनल्स पर भी कवरेज में नारे लगाते लोगों की जगह आन्दोलन की पीटूसी देते रिपोर्टर की बात ही सुनाई पड़ती थी. दिल्ली के आन्दोलन से मिली हिम्मत से मध्य प्रदेश में काम करने का उत्साह बढ़ गया. जगह-जगह आरटीआई की कार्यशाला करना और आम आदमी को इस क़ानून के तहत मदद पहुँचाने की कोशिश भी रंग लाती दिखाई दे रही थी. मैंने कभी भी समाजसेवा के क्षेत्र को अपनी आजीविका बनाने के बारे में नहीं सोचा शायद इसलिए कुछ समय बाद पत्रकारिता और समाज सेवा से रुझान हटकर प्राइवेट रेडियो(एफ़.एम्) की तरफ चला गया. जहाँ रेडियो जॉकी के काम ने मुझे इतना उलझाकर रखा था कि समाजसेवा और आन्दोलन जैसी बातें अब सिर्फ बातें ही थीं. अब मैं कॉर्पोरेट का एक हिस्सा बन चुका था. लेकिन जब-जब मौक़ा मिलता था सुबह के शो में शहर से जुड़े सामाजिक मुद्दे उठाने की कोशिश करता था. फिर भी जो बात ज़मीनी स्तर पर आंदोलनों की होती हैं वो रेडियो में समयाभाव के कारण प्रेषित करना कठिन था. फिर रेडियो के भी अपने उसूल होते हैं. उससे संस्था के हित और आपकी नौकरी भी जुड़ी होती है. हालाँकि उसी संस्था में वेतन न बढ़ने की वजह से बाक़ी कर्मचारियों को एकजुट किया और काम नहीं करने का निश्चय किया. इस निश्चय का पालन किसी ने नहीं किया. मुझे कम वेतन पर काम करना पसंद नहीं था इसलिए मैंने संस्था छोड़ दी. बाद में इंदौर के एक अन्य रेडियो में काम करने का मौक़ा मिला जहाँ मेरी वेश-भूषा पर सवाल उठाया गया जिसका मेरी जॉब प्रोफाइल से कोई लेना-देना नहीं था. इस मामले में जीत मेरी हुई थी. लेकिन फिर मुंबई फ़िल्म जगत में बतौर लेखक काम करने के मन से मैंने उस काम को भी छोड़ दिया. मुंबई में जिस जगह मैं रहता हूँ वहाँ के बच्चों ने बताया कि पानी की मशीन का बिजली बिल कुछ लाख रुपये है. जिसमें ठेकेदार द्वारा किया गया उपयोग भी शामिल है. बिल न भरने की वजह से वो मशीन लेकर चला गया है. चूँकि पानी की समस्या मेरे लिए भी थी इसलिए मैंने वहां उन्हें आरटीआई लगाने के लिए राज़ी किया ताकि पता चल सके कि पानी के उपयोग के नाम पर कितना भुगतान उसे किया गया है. हालांकि ये नौबत नहीं आई और स्थानीय लोगों ने पानी की व्यवस्था दुबारा कर ली. त्यौहार के दौरान मुंबई से जबलपुर आना हुआ जहाँ परिसरवासी और स्वयं मेरा परिवार भी एक अव्यवस्था से जूझ रहा था. यह समस्या कंजरवेंसी बाधित होने की थी. एक महानुभाव ने ड्रेनेज पाइप लाइन पर चैंबर के ऊपर कमरे का निर्माण कर लिया जिससे सफ़ाई नहीं हो पा रही थी. और तो और सेप्टिक टैंक के ऊपर उन्होंने गैरेज भी बनवा लिया. इस समस्या से निपटने के लिए बातचीत का सहारा लिया गया फिर जब बात नहीं बनी तो नगर निगम जबलपुर में इसकी शिकायत की गयी. ये काम तो बन गया लेकिन अस्थायी तौर पर क्योंकि अतिक्रमण अभी भी जहाँ की तहाँ है. जिसे हटवाने के लिए मैं अभी भी प्रयासरत हूँ. ये सबकुछ चल रहा था कि वक़्त ने अपना चक्र पूरा किया और जनलोकपाल बिल के समर्थन से जुड़े एक आन्दोलन से मुझे जोड़ दिया. जहाँ मैं देख रहा था वो बच्चे जो संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं की तैयारी में जुटे हुए हैं और अपनी पढ़ाई, दिनचर्या और आन्दोलन के बीच किस तरह से ख़ुदको समायोजित कर रहे हैं. सबसे महत्त्वपूर्ण उनके शिक्षक जो उनके लिए प्रेरक की तरह काम कर रहे थे. इस बीच एक अख़बार में उनका एक नकारात्मक समाचार भी प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्हें “फ़ोटो खिचवाने के लिए लालायित बताया गया”. इस बात का विरोध स्थानीय पत्रकार द्वारा भी किया गया. जिसके कुछ दिन बाद उसी समाचार पत्र ने रात्रि के समय आकर वहां मौजूद छात्रों का फ़ोटो लेकर प्रमुखता से छापा. इस बीच बच्चों के उत्साह में कोई कमी नहीं आयी. वे अपनी शिफ़्ट के अनुसार आते और समय देते. जनलोकपाल बिल आने के बाद यह आन्दोलन समाप्त हो गया. लेकिन आज पुरानी बातों को याद करते हुए एक बात जो दिमाग़ में कौंध रही है कि आंदोलनों का दौर हर व्यक्ति के जीवन में आता है. कुछ इसे ज़िम्मेदारी समझकर निभाते है जैसा कि जनलोकपाल बिल के आन्दोलन में उन बच्चों ने किया. कुछ मजबूरी समझकर निभाते हैं जैसा कि मैं व्यक्तिगत तौर पर अभी भी अतिक्रमण वाले मामले में कार्यवाही को लेकर प्रयासरत हूँ और कुछ इसे शोहरत पाने का एक ज़रिया समझते हैं जैसा कि उस अख़बार ने अपना दृष्टिकोण देते हुए पहला समाचार प्रकाशित किया. आरटीआई अभियान से मैं निःस्वार्थ भाव से जुड़ा. उसके बाद अपने जीवन में जगह-जगह सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं को लेकर मैंने अपनी तरह से विरोध करने की कोशिश की. जनलोकपाल बिल के आन्दोलन ने मुझे एक बार फिर पुराने वक़्त की याद दिला दी. जहाँ कोई स्वार्थ नहीं था. उस वक़्त देश में व्याप्त अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को लेकर कोई नाराजगी नहीं थी क्योंकि उस वक़्त हक़ीक़त से पाला नहीं पड़ा था. आज जब हक़ीक़त सामने है तो लगता है कि आन्दोलन ही वर्तमान की माँग है और ख़ुशकिस्मत हैं वो लोग जो आन्दोलन का महत्त्व समझकर युवावस्था में ही उससे जुड़ जाते हैं. जैसा की उन बच्चों ने किया. मैं इस मामले में थोड़ा बदकिस्मत था क्योंकि आन्दोलन का महत्त्व देर से समझ आया. पर इसके लिए मैं अभी तैयार हूँ या नहीं इसमें असमंजस की स्थिती बनी हुई है. क्योंकि ऐसा लगता है कि जिन लोगों के लिए मैं कभी सूली पर चढ़ाया भी गया, वो कहीं जीवित मुर्दों की तरह साबित न हों.