बहुत पहले जब मैं स्कूल जाता था
तब एक रुपये की भी बहुत अहमियत थी
टेम्पो वाला स्कूल के सामने छोड़ने का
पचास पैसे लेता था
फिर एक रुपया लेने लगा
चाट वाला भी तब एक रुपये की पाँच फुल्की दिया करता था
और सूखी अलग से..
बाद में एक की तीन देने लगा
समोसा भी तब एक रुपये का ही था
फिर डेढ़ का हो गया
स्कूल टाइम पर इस महँगाई से
हाल थोड़ा बुरा हो गया था
क्योंकि पहले स्कूल की रिसिस यानि लंच वाली छुट्टी में
खाने के लिए ऑप्शंस होते थे
लेकिन ये पचास पैसे वाली बढ़ी हुई कीमतों ने
परेशान कर दिया था
सो घर में पॉकेट मनी बढ़ाने के लिए
मम्मी के पास अर्ज़ी लगानी पड़ी
घर के हालात कुछ ऐसे थे
कि सब्जियाँ घर के पीछे पड़े
बालुई मिट्टी वाले बग़ीचे में ही उगानी पड़ती थी
महीने में कभी अगर पराठे खाने मिल जाते
तो कोई त्योहार सा लगने लगता
खैर
महँगाई पचास पैसे ही बढ़ी थी
इसलिए हिसाब-किताब करके
पॉकेट मनी के दो रुपये तय हुए
एक रुपये स्कूल जाने का
दूसरा रुपये स्कूल से आने का
स्कूल दो-ढाई किलोमीटर दूर था
इसलिए जाते वक़्त तो टेम्पो से चला जाता था
लेकिन आते वक़्त वो एक रुपये कल के लिए बचा लेता था
और पैदल ही घर आ जाता था
ऐसा करके दो दिन में एक बार दोस्तों के साथ
समोसा खा ही लेता था
इक दिन किसी पड़ोसी ने
स्कूल से पैदल घर लौटते हुए देख लिया
शाम को घर में शिक़ायत भी कर दी
कि आपका बंटू मेन रोड पर
पैदल-पैदल घूमता रहता है
बस फिर क्या था
वो पॉकेट मनी के दो रुपये भी बंद हो गए
सज़ा के तौर पर
थोड़ी ज़्यादा पैसे खर्च करके घरवालों ने
आने-जाने के लिए रिक्शा लगवा दिया
दोस्तों को तो लगता था कि अपने ठाठ हो गए
लेकिन वो पॉकेट मनी के दो रुपये न मिलने का ग़म
कोई नहीं समझ पाया…