तुम पर एक कविता लिख दूँ

तुम पर एक कविता लिख दूँ
बुरा तो नहीं मानोगी
कुछ सच तुम्हारे बारे में कह दूँ
बुरा तो नहीं मानोगी
ये इतनी सादगी जो लाती हो तुम
इसका कोई ख़ज़ाना है क्या तुम्हारे पास
जो ख़त्म ही नहीं होता
कि रोज़ जब मिलती हो
तो पिछले दिन के मुक़ाबले और ज़्यादा
सादगी से भरी होती हो?
और इस बेफ़िक्री का क्या
जो ओढ़कर घूमती रहती हो तुम
एक ही रंग के छः शेड में
सब एक दूसरे से मिलते जुलते
कि बताना मुमकिन ही नहीं
कल कौन सा रंग था
यही था.. या इससे कुछ अलग था
अच्छा छोडो… ये बताओ कि
तमाम दोपहरें मेरे साथ बिताकर
ऊब नहीं होती तुम्हें
रोज़ मैं वही होता हूँ, जगह भी वही और ऑर्डर भी
क्या.. वो मलाई, ब्रेड, जैम सैंडविच!
इतनी आसान कैसे हो जाती हो
जबकि दूर से तो तुम भी
बाक़ी उन्हीं चलती-फिरती पहेलियों की तरह लगती हो
जो कभी सुलझ नहीं पाएंगी

तुम पर एक कविता लिख दूँ
बुरा तो नहीं मानोगी

 

 

 

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