तेरे इंतज़ार में पूरी शाम काटी है मैंने कुछ यूँ,
जैसे अगली साँस के इंतज़ार में दिल की अगली धड़कन,
जैसे ऊपर की पलकों से मिलने को बेताब निचली पलक,
जैसे स्कूल से छूटकर माँ से मिलने को बेताब बचपन,
काश, कि तुम भी कुछ इस तरह ही बेचैन होते,
काश, कि तुम जो कुछ भी होते,
मेरे लिए होते..
जैसे अगली साँस के इंतज़ार में दिल की अगली धड़कन,
जैसे ऊपर की पलकों से मिलने को बेताब निचली पलक,
जैसे स्कूल से छूटकर माँ से मिलने को बेताब बचपन,
काश, कि तुम भी कुछ इस तरह ही बेचैन होते,
काश, कि तुम जो कुछ भी होते,
मेरे लिए होते..
बहुत खूब!!
shukriya sir 🙂
इसके बारे में मेरी राय कुछ ऐसी है कि लेखक या कवि सूफी साहब किसी उम्मीद के साथ इस कदर बंधे हुए थे कि बस वो उम्मीद ही उनके लिए जीवन की लौ है. लेकिन अंत में जब वो काश कहते हैं तो मसला ये भी हो सकता है कि उस लौ से दो जहाँ तो रोशन हैं लेकिन उनका जहाँ अछूता है…