नींद भी तेरी ही तरह हो चली है,
थोड़ी देर आँखों में रही,
फिर कुछ देर में ओझल,
लगता है जैसे अफ़ीम खाकर,
ये भटक रही है एक दर से दूसरे दर,
ये भी आज़मा रही है मुझे,
दूर खड़े होकर देख रही है तमाशा,
किस बेचैनी से मैं उठता हूँ,
टहलता हूँ कमरे में,
कि लैपटॉप पर,
किस तरह चल रही हैं,
मेरी अधजगी उँगलियाँ,
कैसे पलक नींद की समेटे सिलवट,
है इस आस में,
कि कुछ देर बाद,
फिर से यहाँ डेरा होगा नींद का,
पर क्या बीच रात में,
कोई इस तरह सताता है…
थोड़ी देर आँखों में रही,
फिर कुछ देर में ओझल,
लगता है जैसे अफ़ीम खाकर,
ये भटक रही है एक दर से दूसरे दर,
ये भी आज़मा रही है मुझे,
दूर खड़े होकर देख रही है तमाशा,
किस बेचैनी से मैं उठता हूँ,
टहलता हूँ कमरे में,
कि लैपटॉप पर,
किस तरह चल रही हैं,
मेरी अधजगी उँगलियाँ,
कैसे पलक नींद की समेटे सिलवट,
है इस आस में,
कि कुछ देर बाद,
फिर से यहाँ डेरा होगा नींद का,
पर क्या बीच रात में,
कोई इस तरह सताता है…
बढ़िया है…